कबीरदास की जीवनी – हिंदी में : Essay on Kabir Das in Hindi : भारतीय संस्कृति संत महात्माओं से बनी हुई है. प्राचीन भारत में संत महात्माओं ने भी समय समय पर जन्म लिया और संस्कृति का काम किया. संस्कृति और साहित्य के लिए अपना जीवन व्यतीत किया. अपने चमत्कार और कार्य से समाज को सही मार्ग दिखाया है. अपने ज्ञान से लोक कल्याण के और परमार्थ के काम किए.
कैसा ही नाम है संत कबीर या भगत कबीर का. जिन्हें इतिहास आज भारतीय रहस्यवादी कवि और संत के नाम से पहचानता है. अपने दोहे के द्वारा हिंदी साहित्य की सेवा के साथ-साथ धर्म उपदेश का काम भी किया. हिंदी में की गई उनकी रचनाएं आज भी लोगों को प्रभावित करती है. अपने साहित्य और जीवन कार्यो के द्वारा अंधविश्वास, सामाजिक बुराइयां दूर करने के पूरे प्रयास किए गए. इस लेख में आज संत कबीर दासजी के जीवन के बारे में पूरा प्रयास करेंगे. आशा है कि संत कबीर दास जी की जीवनी आपको पसंद आएगी. संत कबीर दास जी के महत्व के दोहे भी आपको यहां से मिल जाएंगे. संक्षिप्त में लेकिन संत कबीर जी के बारे में संपूर्ण जानकारी हमें देने का प्रयास करेंगे.
कबीरदास: जीवन परिचय: संक्षेप में
- पूरा नाम: संत कबीर दास
- जन्म: सन 1398 ( लगभग)
- जन्मभूमि: लहरतारा ताल, काशी
- मृत्यु: सन : 1518 ( लगभग)
- मृत्यु स्थान: मगहर, उत्तर प्रदेश
- अभिभावक: नीरू और नीमा
- पत्नी : लोई
- संतान: कमल ( पुत्र) , कमाली( पुत्री)
- कर्मभूमि: काशी, बनारस
- कर्मक्षेत्र : समाज सुधारक और कवि
- मुख्य रचनाएं: बीजक “साखी ,सबद, रमैनी” ( विषय : सामाजिक – आध्यात्मिक )
- भाषा: अवधि, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी
- शिक्षा: निरक्षर
- नागरिकता: भारतीय
जीवन परिचय – Biography of Sant Kabir Das
कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदंतिया है. कुछ लोगों के अनुसार, जगत गुरु रामानंद स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे. ब्राह्मणी नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास रख आई. उसे निरू नाम का जुलाहा अपने घर ले आया. उसी ने उसका पालन पोषण किया. बाद में यही बालक कबीर कहलाया.
कतिपय कबीरपंथी ओ की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ. इसके अलावा भी कई कहानियां संत कबीर के जन्म के साथ जुड़ी है. लेकिन हम इसकी ज्यादा चर्चा नहीं करते है.
कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म की बातें मालूम हुई. एक दिन एक पहर रात रहते हैं कबीर पंचगंगा घाट की सीढियों पर गिर पड़े. रामानंद जी गंगा स्नान करने के लिए सीढिया उतर रहे थे तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया. उनके मुंह से तत्काल ‘ राम राम’ शब्द निकल पड़ा. उसी राम को कबीर ने दीक्षा मंत्र मान लिया और रामानंद जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया. कबीर के ही शब्दों में इस बात को प्रमाणित करें तो,
“ हम काशी में प्रकट भये है, रामानंद चेताए.”
संत कबीर का जन्म स्थान
कबीर के जन्म स्थान के संबंध में कई मत है: मगर काशी जन्म स्थान माना जाता है. मगहर के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि कबीर ने अपनी रचना में इसका उल्लेख किया है:
“ पहिले दरसन मगहर पायो पुनि काशी बसे आई”
अर्थात, काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा. मगहर आजकल वाराणसी के निकट ही है और वह कबीर का मकबरा भी है.
कबीर दास की शिक्षा :
कबीर बड़े होने लगे थे लेकिन पढ़े-लिखे नहीं थे. अपनी अवस्था के बालों को से एकदम भिन्न रहते थे. मदरसे भेजने लायक साधन माता पिता के पास नहीं थे. जिसे हर दिन भोजन के लिए ही चिंता रहती हो, उस पिता के मन में कबीर को पढ़ाने का विचार भी ना उठा होगा. यही कारण है कि कबीर जी किताबी विद्या प्राप्त ना कर सके.
इस बात को आप कबीर जी के शब्दों में दोहे के द्वारा समझ सकते हैं.
“ मसि कागद छूवो नहीं, कलम गहि नहीं हाथ.”
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोई
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय.
कबीर का वैवाहिक जीवन
कबीर का विवाह बनखेड़ी बैरागी की पालिका कन्या “लोही” के साथ हुआ था. कबीर को कमाल और कमाली नाम की दो संतान भी थी.
जबकि कबीर को कबीर पंथ में बाल ब्रह्मचारी और विरानी माना गया है. इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या. लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रूप में भी किया है. वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे यह माना जा सकता है. एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं,
“कहत कबीर सुनो रे लोई, हरि बिन राखन हार न कोई “
यह भी हो सकता है कि पहले लोई पत्नी होगी बाद में कबीर ने इसे शिष्या बना लिया हो.
कबीर की धार्मिकता
आरंभ से ही कबीर हिंदू भाव की उपासना करते रहे और आकर्षित होते रहे है. अतः उन दिनों जबकि रामानंद जी की बड़ी धूम थी, अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे. रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग मार्ग निकाल रहे थे जिसमें जाती पाती का भेद और खानपान का अचार दूर कर दिया गया था. अतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि कबीर को ‘ राम नाम’ रामानंद जी से ही प्राप्त हुआ. पर आगे चलकर कबीर के ‘ राम’ रामानंद के ‘ राम’ से भिन्न हो गए. अतः उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की और दृढ़ हुई.
कैसे संत बने कबीर
‘ संत’ शब्द संस्कृत ‘ सत’ के प्रथमा का बहुवाचानांत रूप है. जिसका अर्थ होता है सज्जन और धार्मिक व्यक्ति. हिंदी में साधु पुरुषों के लिए यह शब्द व्यवहार मैं आया. कबीर सूरदास तुलसीदास जी आदि पुराने कवियों ने इसे शब्द का व्यवहार साधु और परोपकारी पुरुष के अर्थ में बहुलाश: किया है और उसके लक्षण भी दिए हैं. कबीर जी के जीवन को इसी रूप में देखते हुए ‘ संत कबीर’ की उपमा मिली होगी. यह आवश्यक नहीं है कि संत उसे ही कहा जाए जो निर्गुण ब्रह्म का उपासक हो. इसके अंतर्गत लोकमंगल विधायी सभी सत्पुरुष आ जाते हैं , किंतु आधुनिक कतिपय साहित्यकारों ने निर्गुणय भक्तों को ही संत की अभी का देदी और अब यह शब्द उसी वर्ग में चल पड़ा है. इसके आलावा संत बनाने का कोई प्रमाण नहीं मिल रहा है.
कबीर जी का व्यक्तित्व
साहित्य के 1000 वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ. ऐसे संत कवि के महिमा और व्यक्तित्व के लिए तुलसीदास जी का भी नाम लिया जाता है. फिर भी तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अंतर था. यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परंतु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्न थे. मस्ती, फक्कड़ाना स्वभाव और सब कुछ को झाड़ फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी साहित्य का अद्वितीय व्यक्तित्व बना दिया है. उसी ने कबीर की वाणी ओं में अनन्य- असाधारण जीवन रस भर दिया है.
इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की कविताएं दोहे और उक्तियां श्रोताओं को बलपूर्वक आकर्षित करती है. इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक संभाल नहीं पाता और कबीर को कवि कहने में संतोष पाता है. एक संत होना और साथ में कवि होना कबीर जी के व्यक्तित्व को बहुत आगे ले जाता है.
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संत कबीर जी की कृतियां
संत कबीर ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखें लेकिन मुंह से भाखे और उनके शिष्य ने उसे लिख लिया. कबीर जी के समस्त विचारों में राम नाम की महिमा प्रतिध्वनित होती देखते हैं. वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे. अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को है नहीं मानते थे.
कबीर के नाम से मिक्नेवाले ग्रंथो की संख्या सभी इतिहासकार के अनुसार भिन्न भिन्न है. h&h विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर 8 ग्रंथ है. जीएच वेस्ट कोट कबीर के 74 ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो राम दास गौड़ ने हिंदुत्व में 71 पुस्तकें गिनाई है. कबीर की वाणी का संग्रह ‘ बीजक’ के नाम से प्रसिद्ध है इसके तीन भाग हैं 1. रमैनी 2. सबद 3. सारवी
साहित्यिक परिचय
कबीर संत कवि और समाज सुधारक थे. उनकी कविता का एक एक शब्द पाखंडीयों के पाखंड वाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थ पूर्ति की निजी दुकानदारों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियां उड़ाता चला गया. कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था. सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश में सवाल या निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है.
कबीरदास की भाषा और शैली
कबीर दास जी ने अपनी रचनाओं में बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है. भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था. जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है उसी रूप में कह दिया. भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नजर आती है.
वाणी के बादशाह को साहित्य रसिक काव्या नंद का आस्वादन कराने वाला समझे तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता. कबीर ने जिन तत्वों को अपनी रचना में ध्वनित करना चाहा है, उसके लिए कबीर की भाषा से ज्यादा धारदार और जोरदार भाषा की संभावना भी नहीं है और जरूरत भी नहीं है.
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कबीर का जीवन दर्शन
कबीर की कविता जीवन के बारे में अपने दर्शन का एक प्रतिबिंब है. उनका लेखन मुख्य रूप से पुनर्जन्मा और कर्म की अवधारणा पर आधारित था. कबीर के दर्शन जीवन के बारे में बहुत स्पष्ट थे. वह एक बहुत ही साधारण तरीके से जीवन जीने में विश्वास करते थे वह परमेश्वर की एकता की अवधारणा में एक मजबूत विश्वास था .
कबीर दास की महिमा
जो लोग सिर्फ इन बातों से ही कबीर दास की महिमा का विचार करते हैं वे केवल सतह पर ही चक्कर काटते हैं. क्योंकि कबीर दास एक जबरदस्त क्रांतिकारी पुरुष थे. उनके कथन की ज्योति जो इतनी क्षेत्रों को उदभाषित कर सकी है कोई एक निरक्षर कवि की शक्तिमत्ता का मामूली परिचय नहीं है. कबीर जी एक ऐसा विराट समुद्र है उनकी जितनी गहराई में आप जाएंगे लेकिन आपको कभी मंजिल नहीं मिलेगी.
कबीर जी की मृत्यु
कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग किया. ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था. हिंदू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीती से होना चाहिए और मुसलमान कहते थे कि मुस्लिम रीति से. इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हटाई गयी तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा. बाद में वहां से आधे फूल हिंदुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने. मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया. मगहर में कबीर की समाधि है. जन्म की बातें की तरह इनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को लेकर भी मतभेद है. किंतु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत 1575 विक्रमी( सन 15 18 ई ) मानते हैं. लेकिन बाद के कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु 1448 को मानते हैं.
कबीरदास के दोहे – प्रसिद्ध व लोकप्रिय
दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय।
जो सुख मे सुमरिन करे, दुख कहे को होय ॥ 1 ॥
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥2॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥3॥
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागू पॉय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥4॥
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥5॥
कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥6॥
सुख में सुमिरन ना किया, दुःख में किया याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥7॥
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥8॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥१॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥10॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥11॥
extra Inning :
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Aaj tak Humne kabir das ji ki adhuri jivani padhi thi, lekin aaj ye post padhkar pura jivan parichay malum hua . Thanks